॥ मनुष्य जीवन का रहस्य ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं...

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
(गीता १४/३)
मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है।

संसार यानि प्रकृति आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर बना है।

स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।

हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के द्वारा निर्मित होता है।

सबसे पहले हमें बुद्धि तत्व के द्वारा अहंकार तत्व को जानना होता है, (अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं। शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है।

जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता रहता है तो वह मिथ्या अहंकार (अवास्तविक स्वरूप) से ग्रसित रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।


जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में रहता है तो वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत अहंकार (वास्तविक स्वरूप) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका अज्ञान दूर होने लगता है।

इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं, जब पूर्ण चेतन स्वरूप परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।

भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता रहता है।

श्री कृष्ण ही केवल एक मात्र पूर्ण चेतन स्वरूप भगवान हैं वह साकार रूप मैं पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, सभी ज़ड़ और चेतन रूप में दिखाई देने वाली और न दिखाई देने वाली सभी वस्तुयें भगवान श्री कृष्ण का अंश मात्र ही हैं। स्थूल तत्व रूप से साकार रूप में दिखाई देते हैं और दिव्य तत्व रूप से निराकार रूप में कण-कण में व्याप्त हैं।

भगवान तो स्वयं में परिपूर्ण हैं......

पूर्ण मदः, पूर्ण मिदं, पूर्णात, पूर्ण मुदचत्ये।
पूर्णस्य, पूर्ण मादाये, पूर्ण मेवावशिश्यते॥

जो परिपूर्ण परमेश्वर है, वही पूर्ण ईश्वर है, वही पूर्ण जगत है, ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण जगत सम्पूर्ण है। ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण ही निकलता है और पूर्ण ही शेष बचता है। यही परिपूर्ण परमेश्वर की यह पूर्णता ही पूर्ण विशेषता है।

संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता है, न तो स्थूल तत्व ही नष्ट होते हैं और न ही दिव्य तत्व नष्ट होते हैं, स्थूल तत्वों के मिश्रण से पदार्थ की उत्पत्ति होती है, पदार्थ ही नष्ट होते हुए दिखाई देते हैं, जबकि स्थूल तत्व नष्ट नहीं होते हैं इन तत्वों की पुनरावृत्ति होती है परन्तु जो चेतन तत्व आत्मा है वह हमेशा एक सा ही बना रहता है उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है।

जीव स्वयं में अपूर्ण है जव जीव आत्मा से संयुक्त होता है तब यह जीवात्मा कहलाता है। इससे सिद्ध होता है जीव ज़ड़ ही है और आत्मा जो कि भगवान का अंश कहलाता है अंश कभी भी अपने अंशी से अलग होकर भी कभी अलग नहीं होता है, इसलिये जो आत्मा कहलाता है वह वास्तव में परमात्मा ही है।

*** उदाहरण के लिये ***

जिस प्रकार कोई भी शक्तिशाली मनुष्य अपनी शक्ति के कारण ही शक्तिमान बनता है, शक्ति कभी शक्तिमान से अलग नहीं हो सकती है उसी प्रकार भगवान शक्तिशाली हैं, और "अपरा और परा" भगवान की प्रमुख शक्तियाँ हैं इसलिये जीव भगवान से अलग नहीं है।


इस प्रकार जीव स्वयं भी अपना नहीं है तो स्थूल तत्वों से निर्मित कोई भी वस्तु हमारी कैसे हो सकती है जब इन वस्तुओं को हम अपना समझते हैं तो इसे "मोह" कहते हैं, मिथ्या अहंकार के कारण हम स्वयं की पहिचान स्थूल शरीर के रूप में करने लगते है और मोह के कारण शरीर से सम्बन्धित सभी वस्तुओं को अपना समझने लगते हैं।

तब फिर प्रश्न उठता है कि संसार में अपना क्या है?

जीव का जीवन आत्मा और शरीर इन दो वस्तुओं के संयोग से चलता है, यह दोनों वस्तु जीव को ऋण के रूप में प्राप्त होती है, जीव को भगवान ने बुद्धि और मन दिये हैं। बुद्धि के अन्दर "विवेक" होता है और मन के अन्दर "भाव" की उत्पत्ति होती है। जब बुद्धि के द्वारा जानकर, मन में जो भाव उत्पन्न होता है उसे ही "स्वभाव = स्व+भाव" कहते हैं, यही भाव ही व्यक्ति का अपना होता है। इस स्वभाव के अनुसार ही कर्म होता है।

आत्मा परमात्मा का ऋण है और शरीर प्रकृति का ऋण है, इन दोनों ऋण से मुक्त होना ही मुक्ति कहलाती है, इन ऋण से मुक्त होने की "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार केवल दो विधियाँ हैं।

पहली विधि तो यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा आत्मा और शरीर अलग-अलग अनुभव करके, जीवन के हर क्षण में "भाव" के द्वारा आत्मा को भगवान को सुपुर्द करना होता है और शरीर को प्रकृति को सुपुर्द करना होता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "सांख्य-योग" कहा गया है।

दूसरी विधि यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा अपने कर्तव्य कर्म को "निष्काम भाव" से करते हुए कर्म-फलों को भगवान के सुपुर्द कर दिया जाता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "निष्काम कर्म-योग" या "भक्ति-योग" कहा गया है और इसी को "समर्पण-योग" भी कहते हैं।

जिस व्यक्ति को "सांख्य-योग" अच्छा लगता है वह पहली विधि को अपनाता है, और जिस व्यक्ति को "भक्ति-योग" अच्छा लगता है वह दूसरी विधि को अपनाता है। जो व्यक्ति इन दोनों विधियों के अतिरिक्त बुद्धि के द्वारा जो भी कुछ करता है, वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं हो पाता है, इन ऋण को चुकाने के लिये ही उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है।

इन सभी अवस्था में कर्म तो करना ही पड़ता है और मनुष्य कर्म करने मे सदैव स्वतंत्र होता है, भगवान किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते हैं, क्योंकि किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप करने का विधि का विधान नहीं है।

इसलिये मनुष्य को न तो किसी कर्म में हस्तक्षेप करना चाहिये और न ही किसी के हस्तक्षेप करने से विचलित होना चाहिये, इस प्रकार अपनी स्थिति पर दृड़ रहने का अभ्यास करना चाहिये।

जब कोई व्यक्ति अपने आध्यात्मिक उत्थान की इच्छा करता है, तब बुद्धि के द्वारा सत्य को जानकर सत्संग करने लगता है तो उस व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है, तब उसके मन में उस सत्य को ही पाने की लालसा उत्पन्न होती है।

जब यह लालसा अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तब मन में शुद्ध-भाव की उत्पत्ति होती है, तब उस व्यक्ति को सर्वज्ञ सत्य की अनुभूति होती है, यह शुद्ध-भाव मक्खन के समान अति कोमल, अति निर्मल होता है।

बस यही मक्खन परम-सत्य स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय है, इस शुद्ध-भाव रूपी मक्खन को चुराने के लिये भगवान स्वयं आते हैं।

यही "कर्म-योग" का सम्पूर्ण सार है। यही मनुष्य जीवन का सार है। यही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन की अन्तिम उपलब्धि है। यही मनुष्य जीवन की परम-सिद्धि है। इसे प्राप्त करके कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है। यह उपलब्धि केवल मनुष्य जीवन में ही प्राप्त होती है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥