॥ जीवात्मा बूँद है और परमात्मा सागर है ॥


भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌ ॥ 
(गीता १६/२१)
जीवात्मा का विनाश करने वाले "काम, क्रोध और लोभ" यह तीन प्रकार के द्वार मनुष्य को नरक में ले जाने वाले हैं, इसलिये मनुष्य को इन तीनों से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिये। 

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्‌ ॥ 
(गीता १६/२२)
जो मनुष्य इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हो जाता है, वह मनुष्य अपनी आत्मा में स्थित रहकर संसार में कल्याणकारी कर्म का आचरण करता हुआ परमात्मा रूपी परमगति मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। 

"जीवात्मा बूँद है परमात्मा सागर है", बूँद का सागर बनना ही बूँद के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, बूँद जब-तक स्वयं के अस्तित्व को सागर के अस्तित्व से अलग समझती रहती है तब-तक बूँद के अन्दर सागर से मिलने की कामना उत्पन्न ही नहीं होती है।  

बूँद में इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह अपने बल पर सागर से मिल सके, बूँद में जब-तक सागर से मिलने की कामना के अतिरिक्त अन्य कोई कामना शेष नहीं रह जाती है तब-तक बूँद का सागर से मिलन असंभव ही होता है।

जब बूँद में सागर से मिलने की पवित्र कामना उत्पन्न होती है तो एक दिन सागर की एक ऎसी लहर आती है जो बूँद को स्वयं में समाहित कर लेती है तब वही बूँद सागर बन जाती है।

बूँद सागर का अंश है, सागर के गुण ही बूँद में होते हैं, बूँद स्वयं को सागर बनाने का निरन्तर प्रयत्न तो करती है लेकिन अहंकार से ग्रसित होने के कारण बूँद उन गुणों को स्वयं का समझने लगती है, इस कारण बूँद का ज्ञान अहंकार रूपी चादर से ढ़क जाता है। 

इस अहंकार रूपी चादर को हटाने की विधि का पता न होने के कारण ही बूँद सागर नहीं बन पाती है, शास्त्रों के अनुसार बूँद के सागर बनने की प्रक्रिया तीन सीढीयों को क्रमशः एक-एक करके पार करने के बाद ही पूर्ण होती है।   

पहली सीढी
"धर्म":- यानि शास्त्र विधि के अनुसार कर्तव्य पालन करके, क्रोध से मुक्त होना।

दूसरी सीढी
"अर्थ":- यानि कर्तव्य पालन में आवश्यकता के अनुसार धन-संपत्ति का अर्जन करके, धन-संपत्ति के लोभ से मुक्त होना।

तीसरी सीढी
"काम":- यानि कर्तव्य पालन में आवश्यकता के अनुसार अपनी कामनाओं की पूर्ति करके, कामनाओं से मुक्त होना।

तीनों सीढीयों को पार करने के पश्चात ही मंज़िल पर पहुँचकर परमात्मा का दर्शन यानि "मोक्ष" की प्राप्ति होती है, इन्हीं को शास्त्रों ने पुरुषार्थ कहा है।

कर्तव्य पालन की इच्छा में व्यवधान आने से क्रोध उत्पन्न हो जाता है, और कर्तव्य पालन की इच्छा पूर्ण होने से लोभ उत्पन्न हो जाता है, जो मनुष्य दोनों स्थितियों में सम-भाव में रहता हुआ निरन्तर अपने कर्तव्य पालन में लगा रहता है तो वह क्रोध, लोभ और कामना रूपी सीड़ीयों को पार करके शीघ्र ही मंज़िल यानि "मोक्ष" को सहज रूप से प्राप्त हो जाता है।       

जिस प्रकार पहली कक्षा को पास किये बिना कोई भी छात्र दूसरी कक्षा को पास नहीं कर सकता है और दूसरी कक्षा को पास किये बिना तीसरी कक्षा को पास करना असंभव है, उसी प्रकार क्रोध रूपी पहली सीड़ी को पार किये बिना कोई भी मनुष्य लोभ रूपी दूसरी सीड़ी को पार नहीं कर सकता है और लोभ के त्याग के बिना तीसरी सीड़ी यानि कामनाओं से मुक्त होना असंभव है।

इच्छाओं की पूर्ति होने पर ही कामनाओं का अन्त संभव होता है, लेकिन एक इच्छा पूर्ण होने के पश्चात नवीन कामना के उत्पन्न होने के कारण कामनाओं का अंत नहीं हो पाता है। 

इच्छाओं के त्याग करने से कामनाओं का मिटना असंभव है, केवल यही ध्यान रखना होता है कि इच्छा की पूर्ति के समय कहीं कोई नवीन कामना की उत्पत्ति तो नहीं हो रही है। 

कामना पूर्ति के लिये ही मनुष्य को बार-बार शरीर धारण करके इस भवसागर में सुख-दुख रूपी भंवर में फंसकर गोते खाने ही पड़ते हैं, बार-बार शरीर धारण करने की प्रक्रिया से मुक्त होने पर ही मनुष्य जीवन की मंज़िल "मोक्ष" की प्राप्ति होती है। 

"मोक्ष" ही वह लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने के पश्चात कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता है, इस लक्ष्य की प्राप्ति मनुष्य शरीर में रहते हुये ही होती है, जिस मनुष्य को शरीर में रहते हुये मोक्ष का अनुभव हो जाता है उसी का मनुष्य जीवन पूर्ण होता है, इस लक्ष्य की प्रप्ति के बिना सभी मनुष्यों का जीवन अपूर्ण ही है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥