भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
(गीता १६/२३)
भावार्थ : जो मनुष्य कामनाओं के वश में होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर अपने ही मन से उत्पन्न की गयीं विधियों से कर्म करता रहता है। वह मनुष्य न तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न सुख को प्राप्त कर पाता है और न परम-गति को ही प्राप्त हो पाता है।
१. आप उन्नति करना चाहते हैं, तो विश्वास के साथ धैर्य धारण करें।
२. जब तक आपको यह विश्वास न हो, कि सामने वाला व्यक्ति मुझसे अधिक बुद्धिमान है, तब तक उस व्यक्ति से प्रश्न कभी नहीं करना चाहिये। हमेशा स्वयं को मूर्ख, और सामने वाले व्यक्ति को बुद्धिमान समझकर वार्तालाप करें।
३. जब आप किसी बुद्धिमान व्यक्ति से प्रश्न करें तो कम से कम शब्दों में करें, और प्रश्न करते समय समझाने की भावना नहीं होनी चाहिये, समझाने की भावना से समझने की भावना समाप्त हो जाती है।
४. जब तक आपको अपने पहले प्रश्न का उत्तर नहीं मिल जाये, तब तक दूसरा प्रश्न कभी नहीं करें, और जो भी उत्तर मिले, उसे सहज भाव से स्वीकार करें।
५. उत्तर को स्वीकार करते समय समझने की इस भावना में रहें कि उत्तर देने वाला सही है, मेरी ही समझ में नहीं आया है, बाद में एकान्त में विचार करें, जब आपका मन उसे स्वीकार करे तभी उस उत्तर को स्वीकार करें।
६. आप जब तक उत्तर से पूर्ण संतुष्ट न हो जाये, तब तक उसी प्रश्न से संबन्धित प्रश्न ही करें, उत्तर के ऊपर कभी प्रश्न न करें, जब आप उत्तर पर प्रश्न करेंगे तो वार्तालाप बहस का रूप धारण कर लेगी।
७. आपसे जब कोई प्रश्न करे, तो कम से कम शब्दों में उत्तर देने का प्रयत्न करें, और केवल अपना ही दृष्टिकोण ही प्रस्तुत करें, उत्तर देते समय समझाने की भावना का त्याग करें।
८. जब भी किसी भी प्रकार की वार्तालाप बहस में परिवर्तित महसूस हो तो, क्षमा माँगकर वाद-विवाद से बचने का प्रयत्न करें, क्योंकि वाद-विवाद से क्रोध उत्पन्न होने के कारण बुद्धि नष्ट हो जाती है।
९. आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा कभी सार्वजनिक स्थान पर नहीं करें, सार्वजनिक स्थान पर आध्यात्मिक ज्ञान चर्चा, हमेशा बहस के रूप में परिवर्तित हो जाती है, आध्यात्मिक ज्ञान ही सत्य है, सत्य को निर्मल मन से धारण करें।
१०. आध्यात्मिक वार्तालाप करते समय बुद्धि का उपयोग न करके मन का ही उपयोग करें, बुद्धि का उपयोग भौतिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये करें।
११. जब भी कभी अपने से बड़ी आयु वाले व्यक्ति से वार्तालाप करें, तो उनकी बात को कभी काटने का प्रयत्न नहीं करें। यदि अपने से बड़ों की बात समझ में न आये, फिर भी उनकी बात का विरोध कभी न करें।
१२. आप से आयु में बड़ा व्यक्ति गलत हो सकता है, फिर भी उनको समझाने की कोशिश न करें, केवल यही सोचें कि उनको समझाने के लिये उनके बड़े हैं, और नहीं तो सबसे बड़े समझाने वाले भगवान तो हैं।
१३. आप जब भी किसी से वार्तालाप करें, तो पहले यह विचार अवश्य कर लें, कि मैं समझना चाहता हूँ, या समझाना चाहता हूँ, दोनों प्रकार की वार्तालाप एक साथ करने से वाद-विवाद की संभावना अधिक होती है।
१४. जब आप कुछ समझना चाहते हैं, तो धैर्य धारण करके समझने का प्रयास करें, और शरीर के साथ मन को भी रखने का प्रयास करें, वार्तालाप के समय प्रायः शरीर के साथ मन नहीं होता है।
१५. जब आप किसी को कुछ समझाना चाहतें हैं, तो केवल अपनी बात ही व्यक्ति के सामने रखें, वह व्यक्ति समझा कि नहीं इस बात का चिंतन न करें, समझना या न समझना, सामने वाले व्यक्ति का कर्म होता है, और स्वयं के लिये वह परिणाम होता है।
१६. कर्म करना मनुष्य के हाथ में होता है, लेकिन कर्म का परिणाम मनुष्य के हाथ में नही होता है, यह परिणाम की आसक्ति ही मनुष्य के दुख का कारण होती है।
१७. जब तक उत्तर देने वाला व्यक्ति, उत्तर देकर शान्त न हो जाये, तब तक बीच में न बोलें, बीच में बोलने से उत्तर देने वाले व्यक्ति का ध्यान भंग हो जाता है, जिससे सिर्फ समय बर्बाद ही होता है।
अक्सर, ऎसा देखने में आता है, वास्तव में तो हम समझना चाहतें है, लेकिन हम समझाने लग जाते हैं, इस बात का एहसास ही नहीं हो पाता है, कि हम समझ रहें हैं, या समझा रहें हैं, इस कारण हम समझ नहीं पाते है, और समय तो अपनी चाल से गुजर ही जाता है, गुजरा हुआ समय कभी वापिस नहीं आता है।
॥ हरि ॐ तत सत ॥