॥ नन्द उत्सव और माखन लीला का तात्पर्य ॥


भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
(गीता ४/९)
अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य (अलौकिक) हैं, इस प्रकार जो कोई वास्तविक स्वरूप से मुझे जानता है, वह शरीर को त्याग कर इस संसार मे फ़िर से जन्म को प्राप्त नही होता है, बल्कि मुझे अर्थात मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

सभी जीव संसार रूपी कारागार में ही जन्म लेते हैं, जन्म लेकर गोकुल रूपी शरीर में प्रवेश करते हैं, और जिस जीव का नन्द रूपी मन होता है तो उसी के आंगन में महामाया रूपी कन्या के स्थान पर आनन्द स्वरूप श्री स्वयं कृष्ण प्रकट हो जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य को इस आनन्द की यशौदा रूपी यश और वात्सल्य रूपी कर्तव्य के द्वारा निरन्तर ध्यान रख कर परवरिश करनी होती है तब यह आनन्द धीरे-धीरे बड़ा होता है।

सबसे पहले यह पूतना रूपी अविध्या का उद्धार करता है, और बड़ा होने पर काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर आदि रूपी असुरों का उद्धार करता है और साथ ही धैर्य, क्षमा, सरलता, संकल्प, सत्य आदि गोप सखाओं के साथ वह हमारी देहात्म बुद्धि रूपी मटकी को फोड़कर भाव रूपी मक्खन को चुरा लेता है, यही वास्तविक मक्खन मेरे कृष्णा को प्रिय है।

इसी मक्खन को खिलाने के लिये गोपी रूपी हम सभी जीवात्मायें उस कृष्णा को खिलाने के लिये लालायित रहतीं हैं। जिस गोपी का यह भाव रूपी मक्खन शुद्ध होता है केवल उसी के मक्खन की वह चोरी करता है। जब तक किसी गोपी का यह मक्खन वह चुराता नहीं है तब तक वह गोपी पूर्ण तृप्त नहीं होती है।

उस तृप्त गोपी रूपी संत का शब्द रूपी मक्खन का प्रसाद जिस किसी को भी प्राप्त होता है यदि वह उस प्रसाद को जो ग्रहण कर लेता है तो उसका भी स्वभाव मक्खन के समान शुद्ध होता है, यही मनुष्य जीवन की सम्पूर्णता है, इस कृष्ण रूपी आनन्द को प्राप्त करके इस संसार रूपी कारागार में पुन: नहीं आना पड़ेगा।

जब तक बुद्धि के द्वारा मन और वाणी से मनुष्य का कर्म एक नहीं हो जाता तब तक मन शुद्ध नहीं होता है। जब तक मन शुद्ध नहीं हो जाता तब तक आनन्द प्रकट नहीं हो सकता है। आनन्द प्रकट हुये बिना भगवान की शुद्ध भक्ति नहीं हो सकती है इसलिये हमें स्वयं के मन को ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये कि मेरा मन क्या चिंतन कर रहा है।

यदि भगवान का चिंतन नहीं हो रहा है तो संसार का चिंतन हो रहा होगा, संसार के चिंतन से मनुष्य का मन अशुद्ध बना रहता है और भगवान के चिंतन से मन शुद्ध हो जाता है। इसलिये स्वयं के मन को पहिचानने का प्रयत्न करना चाहिये। यह तभी संभव है जब तक हम दूसरों के मन को जानना बन्द नहीं करेंगे।

हम तभी जान पायेंगे कि हमारे अन्दर कौन सा चिंतन चल रहा है। यदि किसी के मन में संसार का चिंतन चल रहा है तो आज से ही भगवान का चिंतन का अभ्यास प्रारम्भ कर देना। क्रम-क्रम से चलकर अभ्यास करने से असंभव कुछ भी नहीं रह जाता है।

अभ्यास की विधि

चलते-फिरते, खाते-पीते, सोते-जागते अपने सभी कर्तव्य कार्यों को करते हुए प्रभु के किसी भी नाम का जाप और रूप का समरण करते रहना चाहिये, किसी भी कर्तव्य कर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिये। कर्तव्य पालन ही धर्माचरण कहलाता है।

प्रभु के किसी भी छोटे से छोटा नाम का जप करना आसान होता है, जैसे राधे-राधे, राम-राम, श्याम-श्याम या चैतन्य महाप्रभु के द्वारा दिया गया महामन्त्र का जाप करना चाहिये, इसे जपने के लिये किसी भी गुरु से मन्त्र-दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि यह स्वयं सिद्ध मन्त्र है।

महामन्त्र
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

इस प्रकार निरन्तर अभ्यास के द्वारा आपके यहाँ भी आनन्द प्रकट हो जायेगा।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥