॥ भक्ति का वास्तविक स्वरूप ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
(गीता १२/६)

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥
(गीता १२/७)
जो मनुष्य अपने सभी कर्मों को मुझे अर्पित करके मेरी शरण होकर अनन्य भाव से भक्ति-योग में स्थित होकर निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए मेरी आराधना करते हैं। मुझमें स्थिर मन वाले उन मनुष्यों का मैं जन्म-मृत्यु रूपी संसार-सागर से अति-शीघ्र ही उद्धार करने वाला होता हूँ।

भगवान, परमात्मा और ब्रह्म एक होते हुए भी अलग ही हैं। किसी भी मनुष्य की वास्तविक भगवद भक्ति तो ब्रह्म-ज्ञान प्रकट होने के बाद ही आरम्भ होती है। मनुष्य में ब्रह्म-ज्ञान का प्रकट होना ही ब्रह्म साक्षात्कार कहलाता है। जिस मनुष्य में ब्रह्म-ज्ञान प्रकट हो जाता है वही ब्राह्मण अवस्था को प्राप्त होता है और वही वास्तविक ब्राह्मण होता है, उसके द्वारा बोले जाने वाला प्रत्येक शब्द ब्रह्म-वाक्य होता है।

ब्रह्म-ज्ञान सभी प्राणी मात्र में स्थित है, क्योंकि जहाँ ब्रह्म है वहीं ब्रह्मज्ञान है, आत्मा ही ब्रह्म है जो प्रत्येक प्राणी मात्र में स्थित है।

जगदगुरु आदि शंकराचार्य जी कहते हैं....

अहं ब्रह्मास्मि!
हम सभी परब्रह्म के अंश ब्रह्म स्वरूप ही हैं।

इसी पर गुरु नानक देव जी कहते हैं....

हर घट मेरा सांइया, खाली घट न कोय।
बलिहारी जा घट की, ता में प्रकट होय॥
हर प्राणी के शरीर में भगवान ब्रह्म स्वरूप में रहते है, कोई भी प्राणी का शरीर ऎसा नहीं है जिसमें भगवान नहीं हैं। सार्थकता तो उस उस शरीर रूपी मनुष्य की है, जिसमें वह प्रकट होता है।

संसार में प्रत्येक कर्म को करने के लिये क्रमश: ही चलने का विधान है, जिस प्रकार आगे बढ़ने के लिये पिछले कदम को छोड़ना पड़ता है, जब तक पिछले कदम को नहीं छोड़ते है तो अगला कदम नहीं उठ सकता है तब तक कोई आगे नहीं बढ़ सकता हैं। उसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के लिये....

(१) जब तक मनुष्य निष्काम भाव से कर्म नहीं करता है तब तक मनुष्य का अज्ञान दूर नहीं हो सकता है।

(२) जब तक मनुष्य का अज्ञान दूर नहीं होता है तब तक मनुष्य में ज्ञान प्रकट नहीं हो सकता है।

(३) जब तक मनुष्य में ज्ञान प्रकट नहीं हो जाता है तब तक कोई भी मनुष्य पूर्ण शरणागत नहीं हो सकता है।

(४) जब तक मनुष्य पूर्ण शरणागत नहीं होता है तब तक मनुष्य को भगवान की शरणागति प्राप्त नहीं हो सकती है।

(५) जब तक मनुष्य को भगवान की शरणागति प्राप्त नहीं होती है तब तक मनुष्य वास्तविक भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है।

(६) जब तक मनुष्य को वास्तविक भक्ति प्राप्त नहीं होती है तब तक मनुष्य को भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

(७) जब तक मनुष्य को भगवान की प्राप्ति नहीं होती है तब तक मनुष्य की जन्म-मृत्यु रूपी यात्रा पूर्ण नहीं हो सकती है।

(८) जब तक मनुष्य की जन्म-मृत्यु रूपी यात्रा पूर्ण नहीं होती है तब तक मनुष्य का जन्म-मृत्यु का क्रम चलता रहता है।

जगदगुरु आदि शंकराचार्य जी कहते हैं....

पुनरपि जननम पुनरपि मरणम, 
पुनरपि जननी जठरे शयनम।
बार-बार जन्म लेना, बार-बार मरना, फिर से जन्म लेना और फिर से मर जाना। जन्म से पहले हम कहाँ थे और मरने के बाद कहाँ होंगे यह कोई नहीं जानता है।

भक्ति के द्वारा ही भक्ति प्राप्त होती है, एक भक्ति वह होती है जिसे किया जाता है और दूसरी भक्ति वह होती है जो भगवान की कृपा से प्राप्त होती है।

जो भक्ति की जाती है वह तो भक्ति रूपी कर्म होता है, और जो भक्ति भगवान की कृपा से प्राप्त होती है वह भक्ति पथ होता है। सभी अन्य कर्मों की अपेक्षा भक्ति-कर्म श्रेष्ठ है।

जो कुछ भी किया जाता वह कर्म होता है, जो कुछ भी प्राप्त होता है वह भगवान की कृपा होती है इस बात से यह सिद्ध होता है कि एक साधारण मनुष्य जिसे भक्ति के नाम से जानता है वह वास्तव में भक्ति कर्म ही है।

गीता के अनुसार......

ईश्वर प्राप्ति के दो ही मार्ग है, "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग"।

इन दोनों मार्गों में से किसी एक मार्ग का धर्मानुसार अनुसरण करके ही भक्ति-मार्ग में प्रवेश मिलता है, भक्ति मार्ग में प्रवेश पाना ही मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।

इन दोनों ही मार्गों में कर्म का आचरण तो करना ही होता हैं, प्रत्येक व्यक्ति इन दोनों में से ही किसी एक का अनुसरण कर रहा है। परन्तु आधिकतर मनुष्य सकाम भाव से कर्म करते है। जब तक निष्काम भाव उत्पन्न नहीं होगा तब तक "कर्म-योग" का आचरण नहीं हो सकता है और तब तक किसी भी मनुष्य का योग सिद्ध नहीं हो सकता है।

योग किसे कहते हैं?

"योग" का अर्थ होता है "जोड़ना या मिलाना" जो भी कर्म हमारा भगवान से जोड़ने में या भगवान से मिलन कराने मे सहायक हो उसी को योग कहते हैं।

पूजा किसे कहते है?

पूजा शब्द दो शब्दों को जोड़ कर बना है....पू=पूर्ण और जा=मिलाना..... जो भी कर्म हमें पूर्ण से मिलाने में सहायक हों उसे पूजा कहते हैं। पूर्ण केवल भगवान ही हैं बाकी सभी तो अपूर्ण हैं।

जिस प्रकार मूर्ति-पूजा, भगवान का गीत गाना (भजन), तीर्थ यात्रा करना, पाठ करना, माला द्वारा मंत्र जप करना आदि को जिसे भक्ति-योग कहते हैं, यह भी कर्म-योग के अंतर्गत ही आती है।

जब तक भक्ति-कर्म भी निष्काम भाव से नहीं होगा तब तक भक्ति-योग सिद्ध नहीं हो सकता है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥