॥ ऊखल लीला का तात्पर्य ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
(गीता: 4/9)
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य (अलौकिक) होते हैं, इस प्रकार जो कोई वास्तविक स्वरूप से मुझे जानता है, वह शरीर को त्याग कर इस संसार मे फ़िर से जन्म को प्राप्त नही होता है, बल्कि मुझे अर्थात मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

जब तक मनुष्य प्रेम-भक्ति से भगवान अपना बनाने में लगा रहता है तब तक भगवान मनुष्य के बन्धन में नहीं बँधते हैं, जब मनुष्य भगवान को मन सहित बुद्धि को पूर्ण समर्पित कर देता है तब भगवान उस भक्त के बन्धन में हो जाते हैं। ऊखल लीला के माध्यम से भगवान ने हम सभी को यह शिक्षा दी है।

भगवान जिस भक्ति रूपी डोरी से, ऊखल रूपी मनुष्य से बँधते हैं, जब तक मनुष्य में अहंमता और ममता रूपी दो ऊँगल रहते हैं, तब तक भक्ति रूपी डोरी दो ऊँगल छोटी ही बनी रहती है।

डोरी=प्रेम=भक्ति!

ऊखल=(ऊ+खल)=(उल्टा+दुष्ट)=मनुष्य!

एक ऊँगल=(मैं)=(अहमता)=(मिथ्या अहंकार)=(कर्तापन का भाव)=शरीर को कर्ता मानना!

दूसरा ऊँगल=(मेरा)=(ममता)=(मोह)=जो अपना नहीं है उसे अपना समझना!

भगवान से प्रेम इन छ: भावों के द्वारा किया जा सकता है।

१. मैया यशोदा की तरह (वात्सल्य भाव से)

२. अर्जुन की तरह (सख्य भाव से)

३. गोपीयों की तरह (माधुर्य भाव से)

४. अक्रुर की तरह (दास्य भाव से)

५. उद्धव की तरह (ज्ञान भाव से)

६. सुदामा की तरह (शान्त भाव से)

जब कोई मनुष्य इन छ: भावों में से किसी भी एक भाव में पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास से शरणागत भाव में स्थित होकर भगवान की भक्ति करता है तो एक दिन भगवान की कृपा का पात्र बन जाता है।

जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा का पात्र बन जाता है तो उस मनुष्य के हृदय में भगवान का ब्रह्म स्वरूप में ज्ञान का प्राकट्य होने लगता है।

जब तक माता यशोदा ममता के वश में होकर कान्हा को अपना पुत्र समझकर अहमता के वश में होकर कहतीं हैं कि आज मैं तोहे डोरी से बाँधुंगी, तब तक वह डोरी दो ऊँगल छोटी ही रहती है।

जब माता यशोदा कहतीं है कि लाला मैं तो हार गयी, यहाँ माता यशोदा का पूर्ण समर्पण होता है, तब भगवान की कृपा से दोनों अहमता और ममता मिट जाने से प्रेम रूपी डोरी पूर्ण हो जाती है, उस डोरी में भगवान स्वयं बँधकर ऊखल से बँध जाते हैं।

तब भगवान ऊखल रूपी जीव के द्वारा अहमता और ममता रूपी नलकूबर और मणिग्रीव स्वरूप वृक्षों को जड़ से ही उखाड़ देते हैं।

इस लीला के माध्यम से भगवान ने यह शिक्षा दी है कि भगवान अतिरिक्त हर वस्तु ज़ड़ स्वरूप ही है।

॥ हरि ॐ तत् सत् ॥