भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....
सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥
(गीता ५/४)
अल्प-ज्ञानी मनुष्य ही "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग" को अलग-अलग समझते है न कि पूर्ण विद्वान मनुष्य, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फल-रूप परम-सिद्धि को प्राप्त होता है।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
(गीता ५/५)
जो सांख्य-योगियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, वही निष्काम कर्म-योगियों द्वारा भी प्राप्त किया जाता है, इसलिए जो मनुष्य सांख्य-योग और निष्काम कर्म-योग दोनों को फल की दृष्टि से एक देखता है, वही वास्तविक सत्य को देख पाता है।
निष्काम कर्म-योग:- बिना किसी फल की आसक्ति के कर्तव्य कर्म के द्वारा ज्ञान प्रकट होता है, ज्ञान से वैराग्य उत्पन्न होता है और इन दोनों की प्राप्ति के बाद ही भक्ति की प्राप्ति होती है, भक्ति से ही भगवान की प्राप्ति होती है, इस प्रक्रिया को "निष्काम कर्म-योग" कहते हैं।
सांख्य-योग:- फल की आसक्ति से कर्तव्य कर्म पूर्ण होने के बाद ही वैराग्य को धारण किया जाता है, वैराग्य से ज्ञान प्रकट होता है और इन दोनों की प्राप्ति के बाद ही भक्ति की प्राप्ति होती है, भक्ति से ही भगवान की प्राप्ति होती है, इस प्रक्रिया को "सांख्य-योग" कहते हैं।
कर्म तो दोनों ही अवस्था में हर हाल में करना ही पड़ता है, इन दोनों मार्गों में प्रवेश केवल भगवान की कृपा से ही मिल पाता है, इन दोनों मार्गों से ही मनुष्य़ जीवन की परम-सिद्धि रूप भगवान की प्राप्ति होती है।
भगवान की कृपा केवल उन्ही को प्राप्त हो पाती है जो अपने कर्तव्य कर्मों को अच्छी प्रकार से करते हैं, इसलिये हर व्यक्ति को पहले अपने संसारिक गुरु से कर्तव्य कर्म की ही शिक्षा लेनी चाहिये, क्योंकि कर्तव्य कर्म को किये बिना किसी भी व्यक्ति को इन दोनों मार्गो में प्रवेश नहीं मिल सकता है, इन मार्गों में बिना प्रवेश हुए भगवान की प्राप्ति असंभव है।
कोई भी व्यक्ति बिना कर्तव्य कर्म को किये बिना वैराग्य धारण नहीं कर सकता है, यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य कर्म को जाने बिना कर्म करता है तो वह पाप और पुण्य के चक्कर में पड़कर संसार में जन्म और मृत्यु को निरन्तर प्राप्त होता रहता है।
यदि कोई बिना कर्तव्य कर्म को किये वैराग्य धारण करता है, या अपने को ज्ञानी समझकर कर्तव्य कर्मों का त्याग करता है या अपने कर्तव्य कर्मों को त्याग कर भगवान की भक्ति रूप कर्म करता है तो वह व्यक्ति स्वयं का ही शत्रु होता है।
ऎसा व्यक्ति न तो संसार का ही रह पाता है और न ही भगवान का हो पाता है, वह त्रिशंकु की तरह बीच में ही लटक जाता है, ऎसे जीव को न तो पुरुष शरीर ही प्राप्त होता है और न ही स्त्री शरीर प्राप्त हो पाता है।
पूर्व जन्म में जो ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण ऋषि थे वही गोपीयों के रूप में स्त्री शरीर धारण करके उत्पन्न हुए थे, स्त्री शरीर में गोपीयाँ ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण थीं परन्तु उनमें ज्ञान और वैराग्य प्रकट नहीं था, भगवान श्रीकृष्ण ने गोपीयों को अपने बाल स्वरूप से भक्ति प्रदान की थी, बाल रूप से भक्ति इसलिये प्रदान की थी जिससे गोपीयों में काम वासना न उठ सके, यह काम वासना ही भक्ति में सबसे बड़ी वाधा होती है। इस प्रकार गोपीयों को भक्ति के द्वारा ज्ञान, वैराग्य की प्राप्ति करके तीनों से परिपूर्ण होने पर ही परमहँस अवस्था को प्राप्त हुयीं थीं।
उद्धव पुरुष शरीर में था, जो पुरुष ज्ञान और वैराग्य में पूर्ण स्थित होता है तो उस पुरुष में काम-वासना नहीं होती है, उद्धव में भी ज्ञान और वैराग्य पहले से ही प्रकट थे, भगवान श्री कृष्ण ने उद्धव को राधारानी के स्वरूप से भक्ति प्रदान की थी, राधारानी के रूप में भक्ति इसलिये प्रदान की थी कि उद्धव ज्ञान और वैराग्य में पूर्ण स्थित था इसलिये वह भक्ति को प्राप्त करने का अधिकारी था। इस प्रकार ज्ञान और वैराग्य के द्वारा भक्ति को प्राप्त करके तीनों से परिपूर्ण होने पर ही परमहँस अवस्था को प्राप्त हुआ था।
इस लीला का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि भगवान यह शिक्षा दी है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं होता है, लेकिन दोनों के धर्म अलग-अलग हैं जो एक दूसरे के पूरक होते हैं, पुरुष को जो शिक्षा स्त्री से मिल सकती है वह पुरुष से नहीं मिल सकती है, और स्त्री को जो शिक्षा पुरुष से मिल सकती है वह स्त्री से नहीं मिल सकती है।
ज्ञान और वैराग्य के द्वारा भक्ति प्राप्त हो या भक्ति के द्वारा ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति हो, जब तक तीनों की प्राप्ति न हो जाये तब तक परमहँस अवस्था प्राप्त होना असंभव है।
कोई भी व्यक्ति तब तक भगवान को प्राप्त नहीं कर सकता है जब तक वह परमहँस अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाता है, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से परिपूर्ण अवस्था ही परमहँस अवस्था कहलाती है, यह परमहँस अवस्था ही गोपी भाव कहलाता है।
मनुष्य को जीवन के परम-लक्ष्य को पाने के लिये क्रमश: तीन गुरुओं की अवश्यता होती है....
१. सांसारिक गुरु,
२. आध्यात्मिक गुरु,
३. सदगुरु।
सांसारिक गुरु:- हर व्यक्ति को सांसारिक गुरु जन्म के साथ ही मिलते हैं, आयु और शिक्षा के अनुसार बदलते रहते हैं। यह सभी गुरु हमें सांसारिक कर्तव्य कर्मो की शिक्षा देते हैं।
व्यक्ति का सबसे पहला गुरु उसकी माता दूसरा गुरु पिता और तीसरा गुरु अध्यापक होते हैं, शिक्षा के अनुसार अध्यापक बदलते जाते हैं, फिर शादी के बाद पति और पत्नी एक दूसरे के गुरु ही होते हैं, जब हम किसी व्यक्ति से कहीं जाने का रास्ता पूछते हैं तो वह व्यक्ति भी कुछ समय के लिये हमारा गुरु ही होता है, इस प्रकार सांसारिक गुरु हमें हर कदम मिलते हैं।
आध्यात्मिक गुरु:- जब व्यक्ति अपने कर्तव्य कर्मों को करते हुये अपने आध्यात्मिक उत्थान की कामना करता है तब आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता होती हैं, आध्यात्मिक गुरु का संग करने पर ही सत्संग आरम्भ होता है, जिनके द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा शब्द रूप में ही मिलती है, जब व्यक्ति गुरु की आज्ञा के अनुसार कर्म करने लगता है तो व्यक्ति का अज्ञान मिटने लगता है, अज्ञान मिटने के साथ ही वैराग्य उत्पन्न होना शुरु होता है तभी व्यक्ति को गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर हो पाता है।
सदगुरु:- जब व्यक्ति की पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास आध्यात्मिक गुरु में स्थिर हो जाता है तो गुरु रूप उस शरीर से उस व्यक्ति के लिये सदगुरु के रूप में भगवान स्वयं प्रकट होकर अपना परिचय स्वयं कराते हैं, और अनुभव कराकर विश्वास दिलाते हैं, जब व्यक्ति को सम्पूर्ण विश्वास हो जाता है तो उस व्यक्ति के शरीर रूप रथ के सारथी भगवान स्वयं हो जाते हैं, तब जीव कर्तापन के भाव से मुक्त हो जाता है, इस अवस्था पर ही अहंकार समाप्त हो पाता है, यहाँ से वह शरीर में स्थित जीव वर्तमान कर्म-फलों से मुक्त हो जाता है।
वह जीव शरीर में रहकर भी सभी वर्तमान कर्म-फलों से मुक्त रहता है, वह जीव वर्तमान शरीर में पूर्व जन्मों के कर्म-फलों को भोगकर शरीर त्याग के साथ भगवान के नित्य परम-धाम में प्रवेश पा जाता है, जहाँ पहुंचकर कोई भी जीव वापिस इस संसार में नहीं आता है। यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है।
उद्धव और गोपीयों मे कोई भेद नहीं है, जो लोग उद्धव को निम्न समझते हैं, और गोपीयों को श्रेष्ठ समझते हैं उनसे बड़ा मूर्ख और अपराध करने वाला संसार में अन्य कोई और नहीं हो सकता है।
जिसे संसार में भक्ति के नाम से जाना जाता है, वह तो जो भी संसार में अन्य कर्म होते हैं उनके समान ही कर्म होता है, वास्तविक भक्ति तो प्राप्त होती है।
॥ हरि ॐ तत सत ॥