॥ ईश्वर की आराधना कब और कैसे? ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं......

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥
(गीता ३/१९)
भावार्थ : "कर्म-फ़ल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर कर्म करते रहना चाहिये, क्योंकि अनासक्त भाव से निरन्तर कर्तव्य-कर्म करने से मनुष्य को एक दिन परमात्मा की प्रप्ति हो जाती है।"

"कर्मयोगी" व्यक्ति को सबसे पहले कर्तव्य-कर्म को करना चाहिये, कर्तव्य-कर्म से मुक्त होकर ही किसी भी प्रकार से भगवान की आराधना करनी चाहिये, जो व्यक्ति कर्तव्य कर्म को छोड़कर भगवान की आराधना करते हैं उस व्यक्ति से भगवान कभी प्रसन्न नहीं होते हैं।

"पुराणों के अनुसार जिस-जिस ने भी भगवान को प्राप्त किया केवल अपने कर्तव्य कर्म पर दृड़ रहकर ही प्राप्त किया", कर्तव्य-कर्म को जब अनासक्त भाव से किया जाता है तब कर्तव्य-कर्म ही भगवान की आराधना बन जाता है।

कर्तव्य-कर्म के अतिरिक्त भगवान से जुड़कर जो कुछ भी किया जाता है वह सब भावात्मक रूप से होता है, सबसे पहले कर्तव्य कर्म को ही करना चाहिये, और जब कर्तव्य-कर्म पूर्ण हो जायें तभी भावात्मक रूप से भगवान की आराधना करनी चाहिये, क्योंकि "शास्त्रों के अनुसार भावनात्मक-कर्म से कर्तव्य-कर्म हमेशा श्रेष्ठ होता है"

जो व्यक्ति हाथ में माला-झोली लेकर चलते रहते है और उसे ही भगवान की भक्ति मान लेते हैं, वह प्रभु की भक्ति नहीं है ऎसे व्यक्ति स्वयं को धोखा ही दे रहें है, यह लोग माला का अर्थ ही नहीं जानते है, जो व्यक्ति माला का वास्तविक अर्थ समझ लेता है वह कभी भी गले में या हाथ में माला-झोली लेकर नहीं चलता है।

माला में जो मोती होते हैं उनको मनका कहा जाता है, मनका का अर्थ होता है मन को स्थिर करने वाला साधन, माला में १०८ मनका होते हैं, माला करते समय हर मनका पर मन की स्थिति का अध्यन करना होता है, जब एक माला पूर्ण हो जाती है तब अध्यन करना होता है कि १०८ बार मन्त्र जपने पर मन कितनी बार भगवान में स्थिर हुआ।

जब निरन्तर माला करते-करते सम्पूर्ण माला पर जिस व्यक्ति का मन पूर्ण स्थिर हो जाता है तब उस व्यक्ति के लिये माला का कोई महत्व नहीं रह जाता है, क्योंकि तब उस व्यक्ति का हर कर्म माला ही बन जाता है।

मन स्थिर केवल एक स्थान पर ही बैठकर हो सकता है, चलते हुए माला करने पर मन कभी स्थिर नहीं हो सकता है, जो व्यक्ति चलते हुए माला करते हैं, उनका मन भगवान में कभी स्थिर नहीं हो सकता है, ऎसे व्यक्ति स्वयं को ही धोखा दे रहे होते हैं।

इसलिये माला एकान्त स्थान में या मन्दिर में ही करनी चाहिये क्योंकि एकान्त में या भगवान की मूर्ति के सामने ही मन स्थिर हो सकता है, चलते-फिरते माला करने वाले समाज की दृष्टि में भले ही भक्त कहलायें और अहंकार से ग्रस्त होकर अपने आप को भले ही भक्त समझने लगे लेकिन भगवान की दृष्टि में तो वह मूढ़ ही होते हैं, ऎसे व्यक्ति कभी भी भगवान की कृपा प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

क्योंकि भक्ति का अर्थ प्रभु से प्रेम करना होता है, प्रेम में स्मरण होता है, स्मरण गोपनीय होता है, इसलिये भक्ति को गोपनीय कहा गया है, भक्ति कोई प्रदर्शन की वस्तु नही होती है, इससे समाज भले ही अनुकूल हो जाये लेकिन भगवान तो प्रतिकूल हो जाते हैं।

कुछ व्यक्ति अपने कर्तव्य-कर्म को छोड़कर अपने गुरु का प्रचार करने में लगे रहते हैं, उसे ही आध्यात्मिक उन्नति समझ लेते है, कुछ व्यक्ति आध्यात्मिक किताबों को पढ़कर और उस किताबी ज्ञान को बाँटकर स्वयं को बहुत बडे ज्ञानी समझकर अपने अहंकार को बढाते रहते हैं।

जो व्यक्ति उनकी प्रशंसा करने वाले होते हैं, उन लोगों को वह अपना मित्र समझते हैं, वास्तव में वह उनके सबसे बड़े दुश्मन होते हैं क्योंकि वह उनकी अहंकार रूप अग्नि को हवा देते रहते हैं और वह उनकी प्रशंसा से स्वयं को ज्ञानी समझने लगते हैं, ऎसे व्यक्ति कभी भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पाते हैं।

ज्ञान बाँटने का अधिकारी केवल वही होता है जिसमें ज्ञान स्वयं प्रकट होता है, या जो गुरु परम्परा से गुरु पद पर आसीन होता है, हर व्यक्ति को स्वयं को पहचानने का प्रयास करना चाहिये कि क्या उसमें वास्तविक ज्ञान स्वयं प्रकट हुआ है कि नहीं, यदि ज्ञान प्रकट नहीं हुआ है तब तक प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक स्तर पर अज्ञानी ही होता है।

उस व्यक्ति को शिष्य अवस्था पर ही स्थित रहना चाहिये, शिष्य का एक ही धर्म हैं सुनकर या पढ़कर जहाँ से भी ज्ञान प्राप्त हो उसे ग्रहण करके आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिये, ऎसा करने से एक दिन ज्ञान स्वयं प्रकट होने लगेगा तब वह व्यक्ति ज्ञान बाँटने का अधिकारी हो जाता है।

शिष्य स्तर पर स्थित व्यक्ति को कभी भी आध्यात्मिक ज्ञान चर्चा सार्वजनिक स्थान पर नहीं करनी चाहिये, ऎसे व्यक्ति न तो आध्यात्मिक उन्नति कर पाते हैं और न ही भौतिक उन्नति कर पाते हैं, गुरु बनकर कभी भी ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है, जो अच्छा शिष्य होता है वही एक दिन अच्छा गुरु स्वत: ही बन जाता है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥