॥ शुभ कर्म का फल ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥
(गीता १८/४१)
'ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं।

यह कर्मभूमि है, यहाँ किसी का भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता।

धर्मदत्त नामक एक पवित्र और सदाचारी ब्राह्मण था। वह व्रत-उपवासादि करता था। श्वासोच्छावास में रामनामरूपी यज्ञ करने वाला वह ब्राह्मण एक बार निर्जला एकादशी करके दूसरे दिन अर्थात् द्वादशी के दिन प्रभातकाल में देवपूजन हेतु पूजा की थाली लिये मंदिर की ओर जा रहा था। मार्ग में एक प्रेतात्मा विकराल राक्षसी का रूप धारण करके उसके सामने आयी। उसे देखकर वह घबरा गया और हड़बड़ी में उसने पूजा की थाली जोर से राक्षसी पर दे मारी।

कथा कहती है कि पूजा की थाली में रखे हुए तुलसी-पत्र ता स्पर्श होते ही उस प्रेतात्मा की पूर्व-स्मृति जाग उठी और वह काँपती हुई दूर जा खड़ी हुई। फिर बोलीः "हे ब्राह्मण ! आपकी इस पूजा की थाली का स्पर्श होते ही मेरा कुछ उद्धार हुआ है और मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो रहा है। अब आप जैसे भगवत्प्रेमी भक्त मुझ पर कृपा करें तो मेरा उद्धार हो।

हे भूदेव ! मैं पूर्वजन्म में कलहा नामक ब्राह्मणी थी और जैसा मेरा नाम था वैसे ही मेरे कर्म थे। मैं अपने पति के साथ खूब कलह करती थी। यह देखकर मेरे पति बहुत परेशान हो गये और अपने किसी मित्र के साथ उन्होंने विचार-विमर्श किया कि "मैं अपनी पत्नी से जो भी कहता हूँ, वह उसका उलटा ही करती है।" तब मित्र ने निषेधयुक्ति से काम लेने की पद्धति मेरे पति को बतलायी।

मेरे पति घर आये और बोलेः "कलहा ! मेरा जो मित्र है न, वह बहुत खराब है। अतः उसको भोजन के लिए नहीं बुलाना है।"

तब मैंने कहाः "नहीं, वह तो बहुत सज्जन है इसलिए उसे आज ही भोजन के लिए बुलाना है।"फिर मैंने उसे भोजन करवाया।

कुछ दिन बीतने पर मेरे पति ने पुनः निषधयुक्ति अपनाते हुए कहाः "कल मेरे पिता का श्राद्ध है किंतु हमें श्राद्ध नहीं करना है।"

मैंने कहाः "धिक्कार है तुम्हारे ब्राह्मणत्प पर ! श्राद्ध है और हम श्राद्ध न करें तो फिर यह जीवन किस काम का?"

तब पति बोलेः " अच्छा ठीक है। एक ब्राह्मण को बुलाना, किंतु वह अनपढ़ हो।"

मैंने कहाः "धिक्कार है, तुम ऐसे ब्राह्मण को पसंद करते हो ! जो संयमी हो, विद्वान हों ऐसे अठारह ब्राह्मणों को बुलाना।"

पतिः "अच्छा..... ठीक है। किंतु पकवान मत बनाना, केवल दाल रोटी बनाना।" मैंने तो खूब पकवान बनाये। वे जो-जो निषेधयुक्त से कहते, उसका उलटा ही मैं करती। मेरे पति भीतर से प्रसन्न थे किंतु बाहर से निषेधयुक्ति से काम ले रहे थे। किंतु बाद में वे भूल गये और बोलेः "यह जो पिण्ड है इसे किसी अच्छे तीर्थ में डाल आना।" मैंने वह पिण्ड नाली में डाल दिया। यह देखकर उन्हें दुःख हुआ किंतु वे सावधान हुए और बोलेः "हे प्रिये ! अब उस पिण्ड को नाली से निकालकर नदी में मत डालना, भले ही वह वहीं पड़ा रहे।" मैं तो उस पिण्ड को तुरंत नाली से निकालकर नदी में डाल आयी।

इस प्रकार वे जो भी कहते, मैं उसका उलटा ही करती। वे सावधानी पूर्वक काम लेते रहते तो भी मेरा स्वभाव कलहप्रिय होने के कारण एवं मेरा कलह का स्वभाव होने के कारण मेरे पति खूब दुःखी हुए एवं संतानप्राप्ति हेतु उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। तब मैंने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली और वह भी इसलिए कि मेरे पति की बहुत बदनामी हो और लोग उन्हें परेशान करें।

आत्महत्या के कारण ही मुझे यह प्रेतयोनि मिली है। मैं किसी के शरीर में प्रविष्ट हुई थी किंतु जब वह कृष्णा और वेणी नदियों के संगम-तट पर पहुँचा, तब भगवान शिव और विष्णु के दूतों ने मुझे उसके शरीर से दूर भगा दिया। अब मैं किसी दूसरे के शरीर में प्रविष्ट होने के लिए ही आ रही थी कि सामने आप मिल गये। मैं आपको डराकर आपका मनोबल गिराना चाहती थी ताकि आपके श्वास द्वारा आपके शरीर में प्रविष्ट हो सकूँ, किंतु आपके पवित्र परमाणुओं से युक्त पूजा की थाली एवं तुलसी का स्पर्श होने से मेरा कुछ उद्धार हुआ है। मेरे कुछ पाप नष्ट हुए हैं किंतु अभी मेरी सदगति नहीं हुई है। अतः आप कुछ कृपा करें।"

तब धर्मदत्त ब्राह्मण ने सकल्प करके जन्म से लेकर उस दिन तक किये कार्तिक व्रत का आधा पुण्य उस प्रेतयोनि को पायी हुई कलहा को अर्पित किया। इतने में ही वहाँ भगवान के सुशील एवं पुण्यशील नाम के दो दूत विमान लेकर आये और प्रेतयोनि से मुक्त उस कलहा को उसमें बैठाया। फिर वे धर्मदत्त से बोलेः "हे ब्राह्मण ! जो परहित मे रत रहते हैं उनके पुण्य दुगने हो जाते हैं। अपनी दोनों पत्नियों के साथ तुम लम्बे समय तक सुखपूर्वक रहते हुए बाद में विष्णुलोक को प्राप्त करोगे। यह कलहा भी तुम्हें वहीं मिलेगी। वहाँ भी वर्षों तक रहकर फिर तुम लोग मनु-शतरूपा के रूप में अवतरित होकर तप करोगे और भगवान को पुत्ररूप में अपने घर आमंत्रित करोगे।

वरदान के फलस्वरूप तुम राजा दशरथ के रूप में जन्म लोगे और यह आधे पुण्यों की फलभागिनी कलहा तुम्हारी कैकेयी नामक रानी होगी। साथ ही स्वयं भगवान विष्णु साकार रूप लेकर श्रीराम के रूप में तुम्हारे घर अवतरित होंगे।"

यह कहते हुए दोनों पार्षद कलहा को लेकर चल दिये। कालांतर में वही बात अक्षरशः चरितार्थ हुई, जब दशरथ - कौशल्या के घर निर्गुण - निराकार ने सगुण - साकार रूप धरकर पृथ्वी को पावन किया।

कितनी महत्ता है हरिनाम एवं हरिध्यान की ! श्वास - श्वास में प्रभु नाम के रटन ने धर्मदत्त ब्राह्मण को दशरथ के रूप में भगवान के पिता होने का गौरव प्रदान कर दिया ! सच ही है कि शुभ कर्म व्यर्थ नहीं जाते।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥