॥ भाव से जीवन-शक्ति का विकास ॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्‌।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
(गीताः १०/९)
जिन मनुष्यों के चित्त मुझ में स्थिर रहते हैं और जिन्होने अपना जीवन मुझको ही समर्पित कर दिया हैं, वह भक्तजन आपस में एक दूसरे को मेरा अनुभव कराते हैं, वह भक्त मेरा ही गुणगान करते हुए निरन्तर संतुष्ट रहकर मुझमें ही आनन्द की प्राप्ति करते हैं।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥ 
(गीताः १०/१०)
जो सदैव अपने मन को मुझमें स्थित रखते हैं और प्रेम-पूर्वक निरन्तर मेरा स्मरण करते हैं, उन भक्तों को मैं वह बुद्धि प्रदान करता हूँ, जिससे वह मुझको ही प्राप्त होते हैं।

क्रोध, निन्दा, ईर्ष्या, घृणा, अपमान, आशंका, हठ, असत्य बोलने आदि बुरे भावों से जीवन-शक्ति का नष्ट होती है, और दिव्य प्रेम, दृड़ श्रद्धा, अटूट विश्वास, सहनशीलता, कृतज्ञता, सहजता जैसे भावों से जीवन-शक्ति में वृद्धि होती है।

जब हम बात करते समय किसी के प्रश्न के उत्तर में हाँ कहने के लिए जैसे सिर को आगे-पीछे हिलाते हैं तो इस प्रकार सिर हिलाने से जीवन-शक्ति बढ़ती है, और जब किसी के प्रश्न के उत्तर में न कहने पर सिर को दायें-बायें घुमाते हैं तो इस प्रकार सिर को घुमाने से जीवन-शक्ति घटती है।

प्रसन्नता पूर्वक हँसने से या मुस्कराने से जीवन-शक्ति बढ़ती है, और किसी हँसते हुए व्यक्ति को या किसी हँसते हुये व्यक्ति के चित्र को देखने से भी जीवन-शक्ति बढ़ती है, जबकि इसके विपरीत शोकग्रस्त होकर रोने से या उदास रहने से जीवन-शक्ति घटती है और रोते हुये व्यक्ति को या रोते हुये व्यक्ति के चित्र को भी देखने से जीवन शक्ति घटती है।

जब हम प्रभु प्रेम में सराबोर होकर अत्यन्त प्रेम भाव से "हे भगवान!, हे खुदा!, हे प्रभु!, वाहे गुरु!, हे मालिक!, हे गोविन्द!, हे गोपाल!, हरि बोल!" आदि प्रकार से पुकारते हुये दोनों हाथों को आकाश की ओर उठाते है तब हमारी जीवन-शक्ति बढ़ती है।

मानसिक तनाव, दुःख, शोक, के समय इस प्रकार से पुकारने से हृदय में दिव्य प्रेम की धारा बहने लगती है, इस प्रकार की भक्ति भावना से युक्त होने से जीवन-शक्ति की सुरक्षा होती है, और प्रभु के प्रति धन्यवाद का भाव होने से हमारी जीवन-शक्ति में असीम लाभ होता है।

मेरा अनुभव है जब मुझे रात्रि को कभी निद्रा नहीं आती है तब मैं प्रभु को धन्यवाद देता हूँ, हे प्रभु! तू बड़ा कृपालु है, वाह प्रभु! तेरी महिमा का कोई पार नहीं है, तेरी दया का कोई बयान नहीं कर सकता है तूने हमेशा आराम की नींद दी है, आज की रात्रि तू मुझे इसलिये नहीं सुलाना चाहता है कि मैं तेरे नाम का गुणगान करुँ, वाह प्रभु! तेरी क्या कृपा है? फिर मैं प्रभु का नाम लेने लगता हूँ, दो-चार नाम भी नहीं ले पाता हूँ इतने में तो मुझे नींद आ जाती है।

हमारे शास्त्रों में वेदों को समुद्र की और ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों को मेघ की उपमा दी गई है, समुद्र के पानी से चाय नहीं बन सकती, चावल नहीं पक पातें हैं, समुद्र का जल ओषधियों में वह काम नहीं पाता है, समुद्र के जल को पी भी नहीं सकते है।

जब वही समुद्र का जल सूर्य की किरणों से भाप बनकर ऊपर उठ जाता है तो मेघ के रूप में बरसता है तो वह पानी मधुर बन जाता है तब वह सभी कार्यों में प्रयोग में आ जाता है, स्वाती नक्षत्र में सीप में पड़कर वही जल की बूँद मोती बन जाती है।

इसी प्रकार ब्रह्मतत्त्व में स्थिर हुए ब्रह्मज्ञानी महापुरुष संत जब शास्त्रों के वचन बोलते हैं तो उनकी अमृत-वाणी हमारे जीवन में जीवन-शक्ति का विकास करके जीवन-दाता के नजदीक ले जाने की क्षमता प्रदान कर देती है।

इसीलिए कबीरदास जी ने कहा है....

सुख देवे दुःख को हरे, करे पाप का अन्त।
कहत कबीर वे कब मिलें, परम स्नेही सन्त॥

ऎसे संत दूसरों को सुख देने के लिये स्वयं कष्ट झेलते हैं और दूसरों को पाप कर्म से मुक्त कराते हैं, वह सन्त केवल प्रभु-प्रेम में स्थित होने के कारण परमात्मा का स्वरूप ही होते हैं।

ऎसे सन्तो का सानिध्य उन्ही को प्राप्त हो पाता है जो संसार में सभी प्राणीयों के प्रति आदर का भाव रखते हैं और केवल अपने कार्यों को ही देखते हैं दूसरों के कार्यों की और उनका ध्यान ही नहीं जाता है, जबकि साधारण मनुष्यों प्रेम धन-सम्पत्ति में, परिस्थितियों में, पदोन्नति में, मान-सम्मान में, पत्नी-पुत्र-परिवार में नाते रिश्तों में, स्नेही-मित्रों में, मकान-दुकान में बँटा हुआ रहता हैं।

जिनका केवल परम-पुरुष के साथ ही प्रेम होता है ऐसे महापुरुष जब मिलते हैं तब हमारी जीवन-शक्ति के झरने फूटने लगते हैं, ऎसे संत ब्रह्मचारी के रूप में, गृहस्थ के रूप में, वानप्रस्थी के रूप में और वैरागी रूप में सर्वज्ञ व्याप्त हैं।

बुद्धि और विवेक सभी मनुष्यों में समान रूप से स्थित है, जो मनुष्य बुद्धि का विवेकता पूर्ण उपयोग करते हैं वही ऎसे संत पुरुषों को पहचान पाते हैं, और उन संतो पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के भाव में स्थित होकर अपनी जीवन-शक्ति का विकास करके अपने जीवन को सफल बना पाते हैं।

'श्री गुरु गीता' में श्री शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं.....

यस्य स्मरणमात्रेण ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम्।
सः एव सर्वसम्पत्तिः तस्मात्संपूजयेद् गुरुम्॥

ऎसे संतो के स्मरण मात्र से ज्ञान स्वयं आप प्रकट होने लगता है और वही सम्पूर्ण सम्पदा से युक्त होते हैं, अतः श्री गुरुदेव की पूजा अवश्य करनी चाहिए।

हमारे शास्त्र कहते हैं कि शारीरिक रूप से पूजा करने की अपेक्षा मानसिक रूप से पूजा करना अत्यधिक श्रेष्ठ होती है, यदि भगवान की या गुरु की शारीरिक रूप से पूजा न कर सकें तो कोई बात नहीं परन्तु मानसिक रूप से पूजा अवश्य करनी चाहिये।
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥